जीवन आशा
(ओंकार ठाकुर )
जीवन
बन गया हलाहल,
मैं
पीना चाहता हूँ |
मेरी
दीवानगी तो देखिये,
मैं जीना चाहता हूँ|
जो चाहा
सो पा न सका,
अनचाहा अपने पास मिला,
शिखरों की
अभिलाषा में,
अपूर्व पतन व ह्रास मिला,
आँखों
से दो आंसू टपके,
संसार से
उपहास मिला |
निष्ठुर जग से जीवन को,
मैं छीना चाहता हूँ |
लेकिन
हठधर्मिता मेरी
मैं जीना चाहता हूँ|
मृत्यु स्वयं एक अमृत है,
मुझ को अमर बना देगी,
सांसारिक सभी झमेलों से,
मुझ को मुक्ति दिला देगी,
इस कर्कश शोर में भी,
चिरनिद्रा में रमा देगी|
परलोक
सुखों को तक,
इहलोक
तजना चाहता हूँ|
अचम्भित
हूँ क्यों फिर
मैं जीना चाहता हूँ|
दिन रहते कभी न एक से,
एक तरु मुझ से बोला ,
पतझड़ शीत के बाद ही
आता वसंत का डोला,
तीव्र अनल में ताप कर ही
काग है बनता शोला,
मृत्यु
से पूर्व मैं भी
दीप्त
होना चाहता हूँ|
शायद
तभी कुछ और
मैं
जीना चाहता हूँ|
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