राही, धिक्कारो तब अपने मन को
(ओंकार ठाकुर)
सुन्दर भविष्य की मीठी चाह में,
लक्ष्य साधना की लम्बी राह में,
स्मरण
कर अपने बीते जीवन को,
राही, धिक्कारो मत अपने मन को |
स्वार्थ नहीं तरु को तो फलना है,
साथी नहीं तुझ को तो चलना है,
मन
स्मरण करे यदि स्वजन को,
राही, धिक्कारो मत
अपने मन को |
क्या खोया और क्या पाया तुमने,
विवेचन कर यह क्या पाया तुमने,
देख
श्री हीन अपने सदन को,
राही, धिक्कारो मत अपने मन को |
आधार सृष्टि की ये जीवन पिपासा,
जीवन-सार पाने की क्षीण जिज्ञासा,
छोर
जान इस मग का मरन को,
राही, धिक्कारो मत अपने मन को |
बीड़ा उठाया दुःख दर्द मिटने का,
दलितों को पुनः गले लगाने का.
सुन
कर कर्कश दीन क्रन्दन को,
राही, धिक्कारो मत अपने मन को |
विचलित न होना देख टूटे सहारे,
वीर सदा भुजबल से भाग्य सँवारे,
पा
भानु-चन्द्र विहीन गगन को,
राही, धिक्कारो मत अपने मन को |
असमताओं का समाज अभी बदलना है,
कंकर काँटों का अम्बार तुझे ही दलना है,
रक्त-रंजित
देख कर अपने तन को,
राही, धिक्कारो मत अपने मन को |
देख सृष्टा के मनोहर सृजन को,
सुन न सको असहाय रुदन को,
फिर
तोड़ सको न धन बन्धन को,
राही, धिक्कारो तब अपने मन को |
राही, धिक्कारो तब अपने मन को |
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