जीवन ज्ञान
(ओंकार ठाकुर )
व्यथित, विक्षिप्त,
व्यथित, विक्षिप्त,
अविराम चलते चलते
रुक जाता हूँ थक कर
एक तरु की छाया में |
पीछे देखता हूँ
एक सूना सा पथ
अनगिनत क़दमों से रुन्धा
पदचिन्ह रहित
ऊषा-सांझ को मिलाता
निश्चल है जैसे अभिषप्त विषधर |
ऊपर देखता हूँ
एक तुंड-मुंड तरु
जिस के पत्ते
उड़ चुके हैं
पतझड़ की पवन मैं |
वह बोला . . .
असंख्य वसन्त देखे हैं मैंने
किन्तु
कुछ वर्षों से
रुष्ट है निर्मोही निष्ठुर |
अकस्मात् . . . .
तरु-शिखर पर बैठा
भयवाह गिद्ध
पंख फैलता है
बोध कराने अपनी उपस्थिति का |
उस के रक्तिम नेत्रों मैं
एक आवाहन
“पन्थी, बसेरा यहीं कर लो”
वशीकृत सी शिथिलता में
गिरता हूँ आत्म-बोध खो कर |
यह स्वप्न है या यथार्थ ?
तभी सुगन्धित समीर का झोंका
झिझोड़ता है मुझे
निकट कहीं उपवन है
एक चेतना
स्फूर्त करती है मुझे
और मैं
विगत पथ, गिद्ध व तरु
सभी को भूल
हुआ अग्रसर अपने पथ पर |
सांझ होने में अभी शेष हैं
कुछ पल और कुछ पहर |
--० –
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें