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विकास कि पहचान

विकास कि पहचान

गाँवो में झलकती है
देश के उत्थान की पहचान !
नहीं दीखती अब
अल्हड़ बालाएं
इठलाती जाती
पनघट की ओर |
नहीं दीखती अब
बल खाती गागर बोझ तले
ओस भीगे पल्लू को समेटती |

अब .....
दीख पड़ती है वह
समय-सारणी से मुक्त
आँगन के नल के सामने
लिए मुख पर
प्रतीक्षा की थकान
क्या उत्थान !
क्या इस की पहचान !!

शहर के उस मोहल्ले में
नहीं सुनती अब
वो बचपन की किलकारियां|
क्योंकि
बचपन सम्मोहित है
शिन्चेन और डोरेमोन की
वक्र आकृतियों पर |

मोबाईल व टीवी के
एल्क्ट्रोनिक शोर में,
नुक्कड़ के ठहाके मौन हो गए|
मशीनों से संचारित विश्व में
मानव सम्बन्ध गौन हो गए |
फेसबुक मित्रों के भीड़ में
हमप्याला अब निवाला खो गए |

ये विकास-गाथा है
या ह्रास की दास्तान |
क्या उत्थान ,

क्या उस की पहचान ||

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