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संदेश

क्रांति का आवाहन

क्रांति का आवाहन                                                       (ओंकार ठाकुर)                                          जाग ओ श्रमिक मेरे देश के तू जाग अब | दमन की चक्की में तू पिसता रहेगा कब तक ? कलों की धुरी में  तू  घिसता  रहेगा कब तक ? लहू  तेरा  मिट्टी  में   रिसता  रहेगा कब तक ?                     अस्थिर हवाओं में झूलता रहेगा कब तक ?                     जाग ओ श्रमिक मेरे देश के तू जाग अब | केवल श्रम नहीं अराध्य तेरा और भी है | केवल अन्न नहीं  सा...

तुम स्वयं एक कविता हो

तुम स्वयं एक कविता हो                                                         (ओंकार ठाकुर )                                          तुम स्वयं एक कविता हो                     तुम को क्या सुनाऊं मैं |                     मूर्ख मुझे संसार कहेगा                     सूर्य को दीप दिखाऊं मैं | मेरी कल्पना ठगी रह गई जब  जब  तुम्हें  निहारा | शुष्क हुआ कंठ लेखनी का कागज़ सूना रहा बेचारा | ...

हुस्न ही रहबर निकला

मेरे पूज्य पिता   स्व० श्री लाल दस ठाकुर 'पंकज' द्वारा लिखित ग़ज़ल संग्रह   "फसिहात ओ खुराफ़ात" से उधृत  हुस्न ही रहबर निकला जब मैं मंजिल से कहीं दूर भटक कर निकला इश्क की राह में खुद हुस्न ही रहबर [1] निकला |                     मरना  जीना  तो  है  दस्तूर-ए-जहान-ए-फानी 2                     लेकिन अफ़सोस कि दिल कुश्ता-ए-खंजर 3 निकला | बादा खोरी 4  को जो कहते थे  कि लानत है यह चोरबाजारी-ओ-रिश्वत का वो खूंगर 5  निकला  |                     दिल के परदे पे उतरी थी  यह तस्वीर-ए-सनम                     जब वह दम भर के लिए परदे से बाहर...

होली है

  होली है                     (ओंकार ठाकुर ) रंग में कैसे खेलूं होली साँवरियाजी के संग |       रंग में कैसे, मैं कैसे खेलूं होली ..... शिव भोले को दूध चढ़ाओ और चढाओ भंग | ब्रज में होली खेलें देखो राधा मोहन के संग ||                   रंग में कैसे खेलूं...... इन रंगों में प्यार मिला है और मिली उमंग | आओ मिल कर खेलें होली इक-दूजे के संग ||                   रंग में कैसे खेलूं...... हम से पंगा लेगा होगी पाक कि किस्मत तंग | बॉर्डर पर हम खेलें होली अपनी सेना के संग ||                   रंग में कैसे खेलूं...... खुशिओं की सौगात है ये चलो करें हुड़दंग | देता है सन्देश सभी को रहो प्रेम के संग ||        ...

नीला आकाश

नीला आकाश (ओंकार ठाकुर ) यह नीला आकाश ! शायद इस ने विष पिया है अपने प्रिय से बिछुड़ कर | निशा आती है खो जाता है प्रिय के रत्नित आँचल में | दिनकर का उदय सन्देश है वियोग का और आकाश ! विछिन्न, रक्त रहित नीला पड़ जाता है | सुख और दुःख समय की डोर से बंधे एक ही धुरी पर घूमते हैं सांध्यके पदार्पण से आशा की रक्तिम आभा छा जाती है आकाश के अधरों पर कितनी सुखद है प्रिय मिलन की कल्पना ||

अज्ञान-तिमिर

अज्ञान-तिमिर                                                          (ओंकार ठाकुर ) संग लहरों के लहराती हुई बिना पाल की चंचल नाव अविरल प्रयास के बाद भी तोड़ सकी न तम का घेराव |                                         दिशा भ्रम  के  वातावरण में                     लक्ष्य स्वयं है  विराट छलावा                     नाव को निरन्तर धकेल रही है                     लहरें देकर एक सुंदर छलावा | ...

जहाँ आबे हयात का जाम मिले

मेरे पूज्य पिता   स्व० श्री लाल दस ठाकुर 'पंकज' द्वारा लिखित ग़ज़ल संग्रह   "फसिहात ओ खुराफ़ात" से उधृत    जहाँ आबे हयात का जाम मिले मुझे प्यार भरा कोई नाम मिले, कोई मीठा सा तकिय कलाम 1  मिले | धीरे से चल कर वो मक़ाम मिले, जहाँ आबे हयात का जाम मिले || है शराब हराम, हरम  है  ज़र, जिसे  लाया  गया बे ईमानी से घर | यही फिर भी दिलों में है चाह मगर,कहीं से यूँ ही माले हराम मिले || सरे शाम मैं कल जूँही घर से चला, सुए 2 मैक़दा रोज़ की तरह गया | मैं अंगुश्त-बंददा 3 खड़ा ही रहा,   वहां दर पे जनाब-ए- ईमाम मिले || वे जो मर मिटे अपने वतन के लिए, वे जो सरहदे मुल्क से हट न सके | वे जो सब के लिए जिए और मरे, वे बहिश्त में हम को तमाम मिले || मुझे हज़रते ख़िज्र की जात मिले, कहीं चश्म-ए-आबे हयात मिले | गमो-रंजो-अलम से निजात मिले, तेरी रूह से वस्ले दवाम 4 मिले || था शराब का छूना हरम जिन्हें, था गुनाह कबाब का नाम जिन्हें | वे ब्राह्मण-ओ –शेखो-गरन्थी हमें, तेरी बज़्मे-तरब 5 में तमाम मिले || न तो वक्त रहा,   न...