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संदेश

राही, धिक्कारो तब अपने मन को

    राही , धिक्कारो तब अपने मन को                                                               (ओंकार ठाकुर) सुन्दर भविष्य की मीठी चाह में, लक्ष्य साधना की लम्बी राह में,                     स्मरण कर अपने बीते जीवन को,                     राही , धिक्कारो मत अपने मन को | स्वार्थ नहीं तरु को तो फलना है, साथी नहीं तुझ को तो चलना है,                     मन स्मरण करे यदि स्वजन को,                     राही , धिक्कारो मत अपने मन को | क्...

एहले जहान की हवस-ए-ज़र तो देखिये

मेरे पूज्य पिता   स्व० श्री लाल दस ठाकुर 'पंकज' द्वारा लिखित ग़ज़ल संग्रह   "फसिहात ओ खुराफ़ात" से उधृत  एहले जहान की हवस-ए-ज़र तो देखिये एहले जहान 1  की हवस-ए-ज़र 2 तो देखिये, दिन रात  दौड़ धूप का  चक्कर  तो देखिये |                     इस में भी  कैसे कैसे थे  अरमान  के  महल,                     उजड़े दयार-ए-दिल 3 के ये खण्डहर तो देखिये | नक़श-ओ-नगारे 4 यार पे फन ख़त्म कर दिया, अंग अंग पर कमाल-ए -मसव्वर 5 तो देखिये |                     माना कि खास नज़र-ए-इनायत 6 मुहाल 7 है ,                     गैरों के साथ  हम को  बराबर...

तेरी तस्वीर बना बैठे

तेरी तस्वीर बना बैठे                                            (ओंकार ठाकुर) बिगड़ी तकदीर बनानी थी, तेरी तस्वीर बना बैठे | आज़ाद किया था तूने हमें, हम  ज़ंजीर बना बैठे | वादा किया था  तुझ से,  तुझ  को भूल जाने का, या खुदा, बेख़ुदी  में  हम,  क्या  फिर  बना  बैठे |                                          कागज़ बना कर भूली हुई,  खोई  हुई यादों का |                     आँख के पानी में घोला,  रंग अपनी फर्यदों का |                     बन गए सब रंग, लाऊं कहाँ से  ...

क्रांति का आवाहन

क्रांति का आवाहन                                                       (ओंकार ठाकुर)                                          जाग ओ श्रमिक मेरे देश के तू जाग अब | दमन की चक्की में तू पिसता रहेगा कब तक ? कलों की धुरी में  तू  घिसता  रहेगा कब तक ? लहू  तेरा  मिट्टी  में   रिसता  रहेगा कब तक ?                     अस्थिर हवाओं में झूलता रहेगा कब तक ?                     जाग ओ श्रमिक मेरे देश के तू जाग अब | केवल श्रम नहीं अराध्य तेरा और भी है | केवल अन्न नहीं  सा...

तुम स्वयं एक कविता हो

तुम स्वयं एक कविता हो                                                         (ओंकार ठाकुर )                                          तुम स्वयं एक कविता हो                     तुम को क्या सुनाऊं मैं |                     मूर्ख मुझे संसार कहेगा                     सूर्य को दीप दिखाऊं मैं | मेरी कल्पना ठगी रह गई जब  जब  तुम्हें  निहारा | शुष्क हुआ कंठ लेखनी का कागज़ सूना रहा बेचारा | ...

हुस्न ही रहबर निकला

मेरे पूज्य पिता   स्व० श्री लाल दस ठाकुर 'पंकज' द्वारा लिखित ग़ज़ल संग्रह   "फसिहात ओ खुराफ़ात" से उधृत  हुस्न ही रहबर निकला जब मैं मंजिल से कहीं दूर भटक कर निकला इश्क की राह में खुद हुस्न ही रहबर [1] निकला |                     मरना  जीना  तो  है  दस्तूर-ए-जहान-ए-फानी 2                     लेकिन अफ़सोस कि दिल कुश्ता-ए-खंजर 3 निकला | बादा खोरी 4  को जो कहते थे  कि लानत है यह चोरबाजारी-ओ-रिश्वत का वो खूंगर 5  निकला  |                     दिल के परदे पे उतरी थी  यह तस्वीर-ए-सनम                     जब वह दम भर के लिए परदे से बाहर...

होली है

  होली है                     (ओंकार ठाकुर ) रंग में कैसे खेलूं होली साँवरियाजी के संग |       रंग में कैसे, मैं कैसे खेलूं होली ..... शिव भोले को दूध चढ़ाओ और चढाओ भंग | ब्रज में होली खेलें देखो राधा मोहन के संग ||                   रंग में कैसे खेलूं...... इन रंगों में प्यार मिला है और मिली उमंग | आओ मिल कर खेलें होली इक-दूजे के संग ||                   रंग में कैसे खेलूं...... हम से पंगा लेगा होगी पाक कि किस्मत तंग | बॉर्डर पर हम खेलें होली अपनी सेना के संग ||                   रंग में कैसे खेलूं...... खुशिओं की सौगात है ये चलो करें हुड़दंग | देता है सन्देश सभी को रहो प्रेम के संग ||        ...