मेरे पूज्य पिता स्व० श्री लाल दस ठाकुर 'पंकज' द्वारा लिखित एवं प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह "फसिहात ओ खुराफ़ात" से उधृत यूँ तो बज़्म में पढता नहीं कलाम कभी बहुत बुलंद था जिस हुस्न का मक़ाम कभी , बह इस जहाँ में बिका कोड़ियों के दाम कभी | राह-ए-हयात [1] अगर उस तरफ भी मुड़ जाए , करूँगा खाना-ए-खल्वत 2 में भी कयाम 3 कभी | तमाम उम्र तो गुमनाम कट गई अब क्या , मिले भी शाम ढले इज्ज़ो-एहतराम 4 कभी | बस अब निजात दिला दे, फजूल देर न कर , कि ख़त्म हो नहीं सकते जहाँ के काम कभी | यह रंजे-हिज्र 5 यह खौफे-अदम 6 यह फिक्रे-मुआश, हुआ न सिलसिला-ए-गम का इख्तिताम 7 कभी | था पासे-वाइज़ 8 भी कुछ, और कुछ थी महंगाई, मैं लौट आ नहीं सकता था तिश्ना-काम 9 कभी | है एक ज़र्रे के अन्दर वह कुव्वत-ए-तखरीब 10 | कि काइनात का बिगड़ेगा कुल नजाम 11 कभी | गुलों से तुफ़ जो मेरी बेबसी पे हँसते हैं , बोऊंगा ख़ार जो दामन तो लेंगे थाम कभी | ...
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