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इल्म कि चीज़ अगर ख़ुदा होता

मेरे पूज्य पिता   स्व० श्री लाल दस ठाकुर 'पंकज' द्वारा लिखित एवं  प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह   "फसिहात ओ खुराफ़ात"  अर्थात् मधुर वाणी व बकवाद  से उधृत   मय जो थोड़ी सी पी गया होता   मैं भी सूफी – ओ – पारसा 1  होता | काश मुझ को गम न दिया होता ||           है ये सारा वजूद 2  का किस्सा |           मैं न होता अगर तो क्या होता || छा चुका था दिलो दिमाग में जो | उस से क्यों कर मैं बेवफ़ा होता ||           बात दिल खोल कर तो कर लेता |           मय जो थोड़ी सी पी गया होता || तेरी रहमत 3  को जानते क्यों कर | ग़र न हम ने गुनाह किया होता ||           बहस क्या थी हवास-ए-खमसा 4 के           इल्म कि चीज़ अगर ख़ुदा होता || अपने ही ग़म से जब नहीं फुर्सत...

त्रिविधा

    त्रिविधा चेहरे की अगनित रेखाओं से झांकता गगन के मेघों को सोचता है – बरसें तो क्या ! न बरसें तो भी क्या !! आखिर नष्ट तो होगी ही एक फसल| चैत न बरसे होगी नष्ट रबी | सावन सूखा यदि या बरसा अधिक तो नहीं होगी फसल ख़रीफ की | ऋतू चक्र चला यदि समय - बद्ध तो मारी जाएगी फसल ‘ रिलीफ ’ की ||

विकास कि पहचान

विकास कि पहचान गाँवो में झलकती है देश के उत्थान की पहचान ! नहीं दीखती अब अल्हड़ बालाएं इठलाती जाती पनघट की ओर | नहीं दीखती अब बल खाती गागर बोझ तले ओस भीगे पल्लू को समेटती | अब ..... दीख पड़ती है वह समय - सारणी से मुक्त आँगन के नल के सामने लिए मुख पर प्रतीक्षा की थकान क्या उत्थान ! क्या इस की पहचान !! शहर के उस मोहल्ले में नहीं सुनती अब वो बचपन की किलकारियां| क्योंकि बचपन सम्मोहित है शिन्चेन और डोरेमोन की वक्र आकृतियों पर | मोबाईल व टीवी के एल्क्ट्रोनिक शोर में, नुक्कड़ के ठहाके मौन हो गए| मशीनों से संचारित विश्व में मानव सम्बन्ध गौन हो गए | फेसबुक मित्रों के भीड़ में हमप्याला अब निवाला खो गए | ये विकास-गाथा है या ह्रास की दास्तान | क्या उत्थान , क्या उस की पहचान ||

व्यथित मन ...... जो हँसना चाहता है

व्यथित मन ...... जो हँसना चाहता है मन में आंसू हैं नयनों में सुमन नि:श्वासों  की परतें बिछा कर दबाना चाहता हूँ एक ज्वालामुखी जो फटना चाहता है | जल जाए न कहीं कोई उपवन दृग-नीर की बूँदें बिखेर कर बुझाना चाहता हूँ भयंकर दावानल जो जलना चाहता है | पीड़ा से संवरे मोती ही जहाँ जीवन-धन विप्लव-वीणा की झंकार से मिटाना चाहता हूँ एक शहर जो बसना चाहता हूँ | विस्मृत न करे वेदना को मेरा मन हिय-पीर के गीत सुना कर रुलाना चाहता हूँ व्यथित मन को जो हँसना चाहता है ||       ------0-----

अपने बारे में है अव्वाम की राय क्या

मेरे पूज्य पिता   स्व० श्री लाल दस ठाकुर 'पंकज' द्वारा लिखित एवं  प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह   "फसिहात ओ खुराफ़ात"  अर्थात् मधुर वाणी व बकवाद  से उधृत       अपने बारे में है अव्वाम की राय क्या तेरी रहमत के लिए गम न उठाये क्या क्या | बिलबिलाते हुए आंसू न बहाए  क्या क्या ||           यह सदाक़त 1 की ही ताक़त थी कि तोहमत 2  न लगी |           वरना तूने  ए  फलक 3     गुल न खिलाये क्या क्या || न हुआ सब्र-ओ-सकूँ 4  इस को अभी तक न हुआ | दम दिलासे दिल-ए-नालां 5  को दिलाये क्या क्या ||           यही बेहतर है  कि तुम याद न आओ हर दम |           वर्ना मालूम क्या , जुवां पर मेरी आये क्या क्या || यूँ ही उठता था तेरा दस्त-ए-करम 6  जब मुझ पर | दिल ने  उस वक्त भी  अरमान छुपाये क्या क्या || ...

यूँ तो बज़्म में पढता नहीं कलाम कभी

मेरे पूज्य पिता   स्व० श्री लाल दस ठाकुर 'पंकज' द्वारा लिखित एवं  प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह   "फसिहात ओ खुराफ़ात" से उधृत    यूँ तो बज़्म में पढता नहीं कलाम कभी बहुत बुलंद था  जिस हुस्न का  मक़ाम कभी , बह इस जहाँ में बिका कोड़ियों के दाम कभी | राह-ए-हयात [1] अगर  उस तरफ भी मुड़ जाए , करूँगा खाना-ए-खल्वत 2 में भी कयाम 3 कभी | तमाम उम्र तो  गुमनाम  कट  गई  अब क्या , मिले भी शाम  ढले  इज्ज़ो-एहतराम 4  कभी | बस अब निजात दिला दे, फजूल देर न कर , कि ख़त्म हो नहीं सकते जहाँ के काम कभी | यह रंजे-हिज्र 5 यह खौफे-अदम 6 यह फिक्रे-मुआश, हुआ न सिलसिला-ए-गम का इख्तिताम 7  कभी | था पासे-वाइज़ 8 भी कुछ, और कुछ थी महंगाई, मैं लौट आ नहीं सकता था तिश्ना-काम 9 कभी | है एक ज़र्रे के अन्दर वह कुव्वत-ए-तखरीब 10 | कि काइनात का बिगड़ेगा कुल नजाम 11 कभी | गुलों से तुफ़ जो मेरी बेबसी पे हँसते हैं , बोऊंगा ख़ार जो दामन तो लेंगे थाम कभी |         ...

जीवन ज्ञान

जीवन ज्ञान                                            (ओंकार ठाकुर ) व्यथित, विक्षिप्त, अविराम चलते चलते रुक जाता हूँ थक कर एक तरु की छाया में | पीछे देखता हूँ  एक सूना सा पथ अनगिनत क़दमों से रुन्धा पदचिन्ह रहित ऊषा-सांझ को मिलाता निश्चल है जैसे अभिषप्त विषधर | ऊपर देखता हूँ एक तुंड-मुंड तरु जिस के पत्ते उड़ चुके हैं पतझड़ की पवन मैं | वह बोला . . . असंख्य वसन्त देखे हैं मैंने किन्तु कुछ वर्षों से रुष्ट है निर्मोही निष्ठुर | अकस्मात् . . . . तरु-शिखर पर बैठा भयवाह गिद्ध पंख फैलता है बोध कराने अपनी उपस्थिति का | उस के रक्तिम नेत्रों मैं एक आवाहन “पन्थी, बसेरा यहीं कर लो” वशीकृत सी शिथिलता में   गिरता हूँ आत्म-बोध खो कर | यह स्वप्न है या यथार्थ ? तभी सुगन्धित समीर का झोंका झिझोड़ता है मुझे निकट कहीं उपवन है एक चेतना स्फूर्त करती है मुझे और मैं विगत पथ, गिद्ध व तरु सभी को भूल हुआ अग्रसर अपन...