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संदेश

बिकता मिस्र की गलियों में यूसुफ क्यों

  मेरे पूज्य पिता स्व० श्री लाल दस ठाकुर 'पंकज' द्वारा लिखित एवं   प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह   "फसिहात ओ खुराफ़ात"  अर्थात् मधुर वाणी व बकवाद  से उधृत:           बिकता मिस्र   की गलियों में यूसुफ क्यों?   जीस्त की पुरखार 1  राहों पर करें तुफ़ 2 क्यों । ओखली में   सिर  दिया  हो   तो उफ़ क्यों ।।                 वस्फ़ 3 भी बनता है   अक्सर   बाइस-ए-एज़ा 4 ।                 वरना बिकता मिस्र की गलियों में यूसुफ क्यों। फिक्र-ए-मुस्तकबिल 5 गर है मय से तौबा कर। दो घड़ी के लुत्फ पर   इतना   तसर्रुफ़ 6   क्यों।।                 जब जुहूरे 7 अंसर-ए-खाकी 8   है सब   मख्लूक 9 |           ...

बार-ए-चश्मा के हो गए हामिल

  मेरे पूज्य पिता स्व० श्री लाल दस ठाकुर 'पंकज' द्वारा लिखित एवं   प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह   "फसिहात ओ खुराफ़ात"  अर्थात् मधुर वाणी व बकवाद  से उधृत:    बार-ए-चश्मा के हो गए हामिल ज़िक्रे ग़म गाह-बगाह [1] कर बैठे, उनको बदनाम   आह! कर बैठे | तेरी रहमत के साये में हम भी,   गाहे गाहे   गुनाह   कर   बैठे | बार-ए-चश्मा 2  के हो गए हामिल 3 , उन की जानिब  निगाह कर बैठे |                    और तो और   सामने  उन  के,    सर नगूं 4 मेहरा-माह 5 कर बैठे | दर्दे दिल बन के पड़ गई उलटी , दिल्लगी ख्वा: मखाह कर बैठे |                    जिस में रहबर 6 नहीं कोई मिलता,    इख़्तियार   ऐसी   रह   कर   बैठे | दिल जरासा भी ज़ब्त 7 कर न सका, आँख मिलते ही आह!   कर   बैठे | ...

किस लिए रोते हो मुक़द्दर के लिए

मेरे पूज्य पिता स्व० श्री लाल दस ठाकुर 'पंकज' द्वारा लिखित एवं   प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह   "फसिहात ओ खुराफ़ात"  अर्थात् मधुर वाणी व बकवाद  से उधृत:   iksa ilae raoto hao  Aba  makdd\r ko ilae [sa jahaM maoM hr  kao[-  bao taba hO ja,r ko ilae . saaocata hO hr baSar1 isa-f Apnao hI Gar ko ilae.. haqa Qaao kr pD, gae pICo kuC eosao eohlao husna 2 . gaaoyaa Kasa   [nAama   rKa hao maoro sar   ko   ilae.. k,ailaba e   [nsaaM 3 maoM hma nao   jaao kmaayaa ]ma` Bar . kuC [sa Gar ko ilae hO kuC hO ]sa Gar ko ilae.. @yaa Ajaba 4 jaao kaT Dalaogaa iksaI idna tU [sao. yah   tao gad-na   hI banaI hO   toro Knjar   ko   ilae .. hr trf hO toja,   naaoiklao   yao kaMTo   doK   laao . [na sao pD,ta hO ]laJanaa gaMucaa – e – tr 5 ko ilae.. Sao’r khnao kao tao  khto hao  magar maalaUma   hO. maga,ja, iktn...

उठा है बेगुनाह पे दस्ते सितम ग़लत

मेरे पूज्य पिता   स्व० श्री लाल दस ठाकुर 'पंकज' द्वारा लिखित एवं  प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह   "फसिहात ओ खुराफ़ात"  अर्थात् मधुर वाणी व बकवाद  से उधृत:   उठा है बेगुनाह पे दस्ते सितम ग़लत गर्दन झुकाने वाला   हुआ सर कलम 1  ग़लत| उठा है बेगुनाह पे दस्त- ए – सितम 2 ग़लत || हम आज़िजों 3 के चाके-गरेबां 4 को देख कर | हंसने का है तरीका-ए-गुल एक दम ग़लत 5 || हक्क़ा 6 कि शग्ल-ए- बादा-कशी 7 के तुफैल 8 से | थोड़ी सी देर के लिए ही सही , होता है गम ग़लत || मालूम हाल -ए - ज़ीस्त 9   उसी वक़्त हो गया | राकिम 10 ने जब नसीब पे फेरा कलम ग़लत || तकमील-ए-इश्क़ 11 में ग़लती कर गया हूँ मैं | लेकिन था न उनका रबैय्या भी  कम ग़लत | | मेरे लिए न बाईस - ए - एज़ा 12 बनो मजीद 13 | खाओ न बात  बात  पे   मेरी  कसम  ग़लत | | खल्वत नशीं 14 है वह रग-ए-जान 15 के क़रीब | है सारा शोर-ओ-गोगा-ए-दैरो-हरम १६   ग़लत | | मेरे अदा – ए - फ़र्ज़ १७   में   शायद खता भी हो | लेकिन खलूस-ए-दिल 18 पे है ते...

आजमाया मसीह को भी मगर

मेरे पूज्य पिता   स्व० श्री लाल दस ठाकुर 'पंकज' द्वारा लिखित एवं  प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह   "फसिहात ओ खुराफ़ात"  अर्थात् मधुर वाणी व बकवाद  से उधृत:         आजमाया मसीह को भी मगर बात भी हम ने की नहीं होती, मय जो हम ने पी नहीं होती |            आज़माया मसीह [1] को भी मगर, दर्द में कुछ कमी नहीं होती | नाज़ उठाने को चाहिए जितनी, उम्र उतनी बड़ी नहीं होती |            आप जब तक न मेहरबां होंगे, रहमत-ए-एज़दी 2  नहीं होती | यह भी है क्या कमाले सन्नाई 3 , दो की शक्ल एक सी नहीं होती |            जाऊं जन्नत भी छोड़ कर तुझे, ऐसी ख्वाहिश कभी नहीं होती | खाओ पियो खूब जियो जब तक, ज़िन्दगी इसलिए नहीं होती |            मय की करते हो पेशकश उस वक्त, जब हमें तिशनगी 4  नहीं होती | कोई समझाए श...

दुनियाँ-दारी

      दुनियाँ-दारी दुःख-तप्त जनों की आह....! सुनाता हूँ, तो हंस देते हो तुम ---                         “प्रिय, ये दुनियाँ है...!”                         ..... महान हो तुम                         नित्यता दुःख की                         मान गए हो तुम | अश्रु-रंजित घाव मन के दिखता हूँ, तो नि:श्वास भरते हो तुम---                         “प्रिय, संवेदना है मुझे....!”   ...

मुमकिन है मेरे ज़ख्म का दरमा होना

मेरे पूज्य पिता   स्व० श्री लाल दस ठाकुर 'पंकज' द्वारा लिखित एवं  प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह   "फसिहात ओ खुराफ़ात"  अर्थात् मधुर वाणी व बकवाद  से उधृत :   मुमकिन है मेरे ज़ख्म का दरमा होना खुश्क-साली 1   न   हुई दूर तो   फिर क्या होगा | ग़र न  पैदा  हुए  अंगूर  तो  फिर क्या  होगा ||           तुझ से मुमकिन 2 है मेरे ज़ख्म का दरमा 3 होना | ज़ख्म ग़र बन गया नासूर 4 तो फिर क्या होगा || सर हथेली  पर रख कर  भेंट  चढ़ाऊं  तो सही | तोहफा ये भी न हो  मंज़ूर तो फिर क्या होगा ||           तुम्हारे दीदार 5 से महफ़िल में हों जो सूफी 6 भी | वे सब भी हो गए मखमूर 7 तो फिर क्या होगा || शौक़  से  राह - ए- तसव्वुफ़ 8 पे चलूँगा लेकिन | उस की मंज़िल हो अगर दूर तो फिर क्या होगा ||           फूल  चुनते  हुए ...