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साक़ी हमें तो चाहिए हल्के सरूर की

प्रिय पाठक,

मैं ब्लॉग्स्पॉट मैं नया हूँ इसलिए कुछ भूलें होना स्वाभाविक हैं अत: इन्हें चित ना धरें.

इस ब्लोग्पोस्ट पर मैं अपनी रचनाओं के साथ साथ अपने स्वर्गीय पूज्य पिता श्री लाल दास ठाकुर 'पंकज' जी की रचनाओं को भी उद्धृत करूंगा. वे उर्दू में गज़लें लिखते थे जिन्हें मैंने हिंदी में लिपिबद्ध किया है |

प्रस्तुत गज़लें उनकी प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह " फसिहात - ओ - खुराफ़ात " से उद्धृत हैं |

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साक़ी हमें तो चाहिए हल्के सरूर की


सब को पसंद अगरचे  है सूरत हजूर की ,
सीरत को जिस ने देखा शिकायत ज़रूर की |
                    जिस के लिए बहिश्त1 में जाने कि चाह थी,
                    तेरी गली में भूल गया याद उस हूर की |
आदम हुआ था हुक्म उदूली का मुर्तकिब2 ,
अब तक भुगत रहा है सजा उस क़ुसूर की|
                    उम्मीद तो न थी दिले दीवाना से मगर,
                    जो बात उस ने की वो बड़ी बाशऊर3 थी |
कुछ भी नहीं है चाँद तारों कि दुनियां ,
परवाज़4 है दराज़5 ख़याली तयूर6 की |
                    करता है दिल कभी तर्के-जहाँ7 की जिद ,
                    अन्धे को सूझती है अँधेरे में दूर की |
घंटों बैठता हूँ मैं तस्सवुर8 में रात दिन ,
रख कर के अपने सामने मूरत हजूर की|
                    सुलझा रहे है यूँ तो मसाइल9 जहान के ,
                    लेकिन खबर नहीं हा घरेलु उमूर की |
कुछ खून का दबाओ ही अपना बढ़ा हुआ .
साक़ी, हमें तो चाहिए हल्के सरूर की |
                    हर चीज़ काइनात10 की तेरा ही रूप है,
                    हाज़त11 नहीं मुझे किसी दीगर ज़हूर12 की|
         
          ‘पंकज’ सुखनवरों13 के यहाँ ज़र भला कहाँ ,
          अन्दोखता14 हैं कुछ गज़लें चंद सतूर15 की |






1 स्वर्ग 2 दोषी 3 समझदारी 4 उड़ान 5 लम्बी 6 पक्षी 7 संसार का त्याग 8 ध्यान 9 समस्याए 10 ब्रम्हांड 11 आवश्यकता 12 दर्शन, प्राकट्य 13 कवियों 14 एकत्रित किया हुआ 15 पंक्तियाँ 

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