तुम स्वयं एक कविता हो
तुम
स्वयं एक कविता हो
तुम
को क्या सुनाऊं मैं |
मूर्ख
मुझे संसार कहेगा
सूर्य
को दीप दिखाऊं मैं |
मेरी कल्पना ठगी रह गई
जब जब
तुम्हें निहारा |
शुष्क हुआ कंठ लेखनी का
कागज़ सूना रहा बेचारा |
फिर
भी चंचल मन को
कैसे भला मनाऊं मैं |
तुम
स्वयं एक कविता हो
तुम
को क्या सुनाऊं मैं |
लहरायें जब केश तुम्हारे
भू पर छा जाता सावन |
होठों की लाली को लख
मधुप भूल जाता उपवन |
पुष्प
नहीं
है रे निर्लज्ज
अज्ञानी,
कैसे समझाऊं मैं |
तुम
स्वयं एक कविता हो
तुम को क्या सुनाऊं मैं |
तुम्हारे स्वर से बढ़ क्या
सरस्वती की होगी वीणा |
आँचल छाया में मृत्यु से
सुखद क्या होगा जीना |
असीम
सौन्दर्य को कैसे
छन्दों में सजाऊं मैं |
तुम
स्वयं एक कविता हो
तुम
को क्या सुनाऊं मैं |
देख चाल लज्जित होती
सागर की उन्मुक्त तरंग |
परिभाषा है लावण्य की
यह रूप यह अंग-प्रत्यंग |
तुम्हें
बाँध सके ऐसा
शब्द-जाल
कैसे लाऊं मैं |
तुम
स्वयं एक कविता हो
तुम
को क्या सुनाऊं मैं |
मूर्ख
मुझे संसार कहेगा
सूर्य
को दीप दिखाऊं मैं |
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अद्भुत लेखनी। प्रणाम आदरणीय
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