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तुम स्वयं एक कविता हो

तुम स्वयं एक कविता हो

                                                        (ओंकार ठाकुर )
                    
                    तुम स्वयं एक कविता हो
                    तुम को क्या सुनाऊं मैं |
                    मूर्ख मुझे संसार कहेगा
                    सूर्य को दीप दिखाऊं मैं |

मेरी कल्पना ठगी रह गई
जब  जब  तुम्हें  निहारा |
शुष्क हुआ कंठ लेखनी का
कागज़ सूना रहा बेचारा |
                   
                    फिर भी चंचल मन को
                    कैसे  भला  मनाऊं मैं |
                    तुम स्वयं एक कविता हो
                    तुम को क्या सुनाऊं मैं |

लहरायें जब केश तुम्हारे
भू पर छा जाता सावन |
होठों की लाली को लख
मधुप भूल जाता उपवन |
                    
                    पुष्प  नहीं  है  रे निर्लज्ज
                    अज्ञानी, कैसे समझाऊं मैं |
                    तुम स्वयं एक कविता हो
                    तुम  को  क्या  सुनाऊं मैं |

तुम्हारे स्वर से बढ़ क्या
सरस्वती की होगी वीणा |
आँचल छाया में मृत्यु से
सुखद क्या होगा जीना |
                    
                    असीम सौन्दर्य  को कैसे
                     छन्दों  में   सजाऊं  मैं |
                    तुम स्वयं एक कविता हो
                    तुम को क्या सुनाऊं मैं |

देख चाल लज्जित होती
सागर की उन्मुक्त तरंग |
परिभाषा है लावण्य की
यह रूप यह अंग-प्रत्यंग |
                   
                    तुम्हें  बाँध  सके  ऐसा
                    शब्द-जाल कैसे लाऊं मैं |
                    तुम स्वयं एक कविता हो
                    तुम को क्या सुनाऊं मैं |
                    मूर्ख मुझे संसार कहेगा
                    सूर्य को दीप दिखाऊं मैं |
                   

                    --o—

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