मेरे पूज्य पिता स्व० श्री लाल दस ठाकुर 'पंकज' द्वारा लिखित ग़ज़ल संग्रह "फसिहात ओ खुराफ़ात" से उधृत
हुस्न ही रहबर निकला
जब
मैं मंजिल से कहीं दूर भटक कर निकला
इश्क
की राह में खुद हुस्न ही रहबर[1]
निकला |
मरना जीना
तो है दस्तूर-ए-जहान-ए-फानी2
लेकिन अफ़सोस कि दिल
कुश्ता-ए-खंजर3 निकला |
बादा
खोरी4 को जो कहते थे कि लानत है यह
चोरबाजारी-ओ-रिश्वत
का वो खूंगर5 निकला |
दिल के परदे पे उतरी थी यह तस्वीर-ए-सनम
जब वह दम भर के लिए परदे से
बाहर निकला |
जादे
राह6 के लिए मैं साथ न लाया कुछ भी
जिन्दगानी
के लम्बे सफ़र पर यूँ ही निकला |
जिस के चर्चे थे ज़माने की
ज़वां पर क्या क्या
एक टूटा हुआ दिल सीने के अन्दर निल्क्ला |
सब
ने ठुकरा दिया नाचीज़ समझ कर जिस को
ज़र्रा-ए-खाक़7
वह खुर्शीद8-ए-मनव्वर9
निकला |
तौबा लाहौल व ला कुव्वत इल्ला
विल्ला10
कितना मनहूस मेरा फाल-ए-मुक़द्दर11
निकला |
उन
के दिल को तो समझता था मैं अपना लेकिन
बह
भी कमबख्त12 किसी ग़ैर का ही घर
निकला |
बादानोशी पे हुई बहस का हासिल13 यह था
हम तो पीते थे कभी और वह
खूंगर निकला |
दिल
को झटका न लगे आँखों के मिल जाने से
सर
झुका कर मैं तेरे कूचे से होकर निकला |
चश्म-ए-बद्दूर14 कि उजड़ा हुआ ‘पंकज’ का दिल
ऊंचे अरमानों के महलात का खण्डहर निकला
|
[1] मार्ग
प्रदर्शक 2 नश्वर संसार 3 तलवार से काट कर मारा हुआ 4 सुरापान 5 आदी 6 सफ़र खर्च 7
धूलि-कण 8 सूरज
9 चमकदार 10 ईश्वर सौगन्ध यह असह्य है
अतः इस से बचें| यह वाक्य विस्मय पर बोलते हैं 11 प्रारब्ध का लेख
12 अभागा 13 परिणाम 14 बुरी नज़र दूर
रहे
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