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यूँ तो बज़्म में पढता नहीं कलाम कभी

मेरे पूज्य पिता   स्व० श्री लाल दस ठाकुर 'पंकज' द्वारा लिखित एवं  प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह   "फसिहात ओ खुराफ़ात" से उधृत    यूँ तो बज़्म में पढता नहीं कलाम कभी बहुत बुलंद था  जिस हुस्न का  मक़ाम कभी , बह इस जहाँ में बिका कोड़ियों के दाम कभी | राह-ए-हयात [1] अगर  उस तरफ भी मुड़ जाए , करूँगा खाना-ए-खल्वत 2 में भी कयाम 3 कभी | तमाम उम्र तो  गुमनाम  कट  गई  अब क्या , मिले भी शाम  ढले  इज्ज़ो-एहतराम 4  कभी | बस अब निजात दिला दे, फजूल देर न कर , कि ख़त्म हो नहीं सकते जहाँ के काम कभी | यह रंजे-हिज्र 5 यह खौफे-अदम 6 यह फिक्रे-मुआश, हुआ न सिलसिला-ए-गम का इख्तिताम 7  कभी | था पासे-वाइज़ 8 भी कुछ, और कुछ थी महंगाई, मैं लौट आ नहीं सकता था तिश्ना-काम 9 कभी | है एक ज़र्रे के अन्दर वह कुव्वत-ए-तखरीब 10 | कि काइनात का बिगड़ेगा कुल नजाम 11 कभी | गुलों से तुफ़ जो मेरी बेबसी पे हँसते हैं , बोऊंगा ख़ार जो दामन तो लेंगे थाम कभी |         ...

जीवन ज्ञान

जीवन ज्ञान                                            (ओंकार ठाकुर ) व्यथित, विक्षिप्त, अविराम चलते चलते रुक जाता हूँ थक कर एक तरु की छाया में | पीछे देखता हूँ  एक सूना सा पथ अनगिनत क़दमों से रुन्धा पदचिन्ह रहित ऊषा-सांझ को मिलाता निश्चल है जैसे अभिषप्त विषधर | ऊपर देखता हूँ एक तुंड-मुंड तरु जिस के पत्ते उड़ चुके हैं पतझड़ की पवन मैं | वह बोला . . . असंख्य वसन्त देखे हैं मैंने किन्तु कुछ वर्षों से रुष्ट है निर्मोही निष्ठुर | अकस्मात् . . . . तरु-शिखर पर बैठा भयवाह गिद्ध पंख फैलता है बोध कराने अपनी उपस्थिति का | उस के रक्तिम नेत्रों मैं एक आवाहन “पन्थी, बसेरा यहीं कर लो” वशीकृत सी शिथिलता में   गिरता हूँ आत्म-बोध खो कर | यह स्वप्न है या यथार्थ ? तभी सुगन्धित समीर का झोंका झिझोड़ता है मुझे निकट कहीं उपवन है एक चेतना स्फूर्त करती है मुझे और मैं विगत पथ, गिद्ध व तरु सभी को भूल हुआ अग्रसर अपन...