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यूँ तो बज़्म में पढता नहीं कलाम कभी

मेरे पूज्य पिता स्व० श्री लाल दस ठाकुर 'पंकज' द्वारा लिखित एवं प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह "फसिहात ओ खुराफ़ात" से उधृत   

यूँ तो बज़्म में पढता नहीं कलाम कभी


बहुत बुलंद था  जिस हुस्न का  मक़ाम कभी ,
बह इस जहाँ में बिका कोड़ियों के दाम कभी |

राह-ए-हयात[1] अगर  उस तरफ भी मुड़ जाए ,
करूँगा खाना-ए-खल्वत2 में भी कयाम3 कभी |

तमाम उम्र तो  गुमनाम  कट  गई  अब क्या ,
मिले भी शाम  ढले  इज्ज़ो-एहतरामकभी |

बस अब निजात दिला दे, फजूल देर न कर ,
कि ख़त्म हो नहीं सकते जहाँ के काम कभी |

यह रंजे-हिज्र5 यह खौफे-अदम6 यह फिक्रे-मुआश,
हुआ न सिलसिला-ए-गम का इख्तिताम7  कभी |

था पासे-वाइज़8 भी कुछ, और कुछ थी महंगाई,
मैं लौट आ नहीं सकता था तिश्ना-काम9 कभी |

है एक ज़र्रे के अन्दर वह कुव्वत-ए-तखरीब10 |
कि काइनात का बिगड़ेगा कुल नजाम11 कभी |

गुलों से तुफ़ जो मेरी बेबसी पे हँसते हैं ,
बोऊंगा ख़ार जो दामन तो लेंगे थाम कभी |

          ग़ज़ल-सरा12 हुआ ‘पंकज’ जब आप को देखा,
          वह यूँ  तो बज़्म13 में पढ़ता नहीं कलाम कभी |
                       --०—






[1] जीवन पथ 2 एकांत स्थान 3 ठहराव 4 आदर सत्कार 5 विरह दुःख 6 परलोक का डर 7 समाप्ति 8 मौलवी का सम्मान 9 प्यासा 10 विनाश की शक्ति 11 प्रबन्धन 12 ग़ज़ल पढ़ना 13 कवि गोष्ठी 

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