स्व० श्री लाल दास जी ‘पंकज’ का जीवन
एवं साहित्य यात्रा
लेखक:
ओंकार ठाकुर आईपीएस (सेo निo) बजौरा, कुल्लू
कुल्लवी भाषा के साहित्य जगत में, मेरे पूज्य पिताश्री श्री लाल दास ठाकुर जी का एक विशिष्ट स्थान है। उनका
वर्षों का अविरल प्रयास कुल्लवी भाषा में महाभारत के रूप में फलीभूत हुआ। इस के
अतिरिक्त उन द्वारा लिखित, उर्दू में गज़लों का संग्रह फसीहातो खुराफात, कुल्लवी
में भगवद्गीता गीता और हिन्दी में कुल्लवी भाषा से संबंधित ‘पुआम’ प्रकाशित हुई
हैं। बहुत सा अप्रकाशित साहित्य अभी शेष है जिसे निकट भविष्य में उचित प्रकाशक
मिलने पर प्रकाशित करने का विचार रखता हूँ।
लाल दास जी का जीवन एक पहाड़ी नदी के प्रवाह के भांति रहा है। यह प्रवाह कठिनाइयों का सामना करते हुए
निरंतर आगे बढ़ता रहा। निम्नलिखित वृतांत का अधिकतर भाग उनके द्वारा लिखित
संस्मरणों से ही लिया गया है।
उनका जन्म प्रविषटे 26 फाल्गुन सम्वत 1881, तदनुसार दिनांक 8
मार्च 1924 को कुल्लू जिला (उस समय पंजाब के कांगड़ा जिला की तहसील) के सुदूर व
दुर्गम क्षेत्र के एक गांव चिपनी में हुआ। यह गाँव भीतरी सिराज में बंजार से 20 किमी
दूर स्थित बठाड़ गाँव से लगभग दो किमी ऊपर स्थित है। उस समय वाहन योग्य सड़क केवल
बंजार तक ही उपलब्ध थी। आज भी चिपनी पहुँचने
के लिए बठाड़ से पैदल ही सीधी चढ़ाई चढ़ के जाना पड़ता है।
श्री लाल दास जी के पिता परस राम जी एक सरल हृदय व्यक्ति थे। अपनी
अनुशासन प्रियता के कारण उन्होंने एक बड़े परिवार को एकसूत्र में पिरोये रखा था।
जिस जगह ये परिवार रहता था वहाँ 4-5 घर इसी
परिवार के हैं। यह स्थान मझटन नाम से जाना
जाता है और इस परिवार के सदस्यों को मझटणू का उपनाम दिया जाता है जो सिराज क्षेत्र
में सर्वविदित है। कहते हैं कि एक समय में इस परिवार के लगभग 50-55 सदस्य एक ही
संयुक्त परिवार में रहते थे जिस का बंटवारा परस राम जी की मृत्यु के पश्चात ही
1964 ईo में हुआ।
शैशव काल में लाल दास जी की आँखें रोग ग्रसित हो गईं। उनकी माता
केसरी कहा करती थीं कि पूरे दो वर्ष तक बालक ने आँखें नहीं खोली। संभवतः इसी लंबी
बीमारी के कारण उन की आँखों में मायोपिया हो गया। जब वे पाँचवीं कक्षा में पढ़ने
लगे तब मंद-दृष्टि का पता चला। आरंभ में ही (-5) नंबर का चश्मा लग गया। बाद में यह
(-8) तक जा पहुंचा। बाल्यकाल में ही इन्हें एक और रोग हो गया जिस ने शीघ्र ही
भयंकर रूप धरण कर लिया। एक रात माता को स्वप्न आया –क्या देखती है कि शिशु अपने
पिता की गोद में मरणासन्न पड़ा था। अचानक बाहर से एक यमदूत आया और शिशु को उठा कर
बाहर चल पड़ा। परस राम जी का छोटा भाई कमली राम भी पास बैठ दिखा। उस को तत्क्षण खेल
आई और वह भी यमदूत के पीछे बाहर निकाल गया। कुछ देर बाद वह बालक को लेकर लौट आया।
माता ने कुलदेवता को सवा तोले का एक बालू (कर्ण फूल) देने का
संकल्प लिया यदि उस का पुत्र स्वस्थ हो जाए। शायद ईश्वर ने ममता की पुकार सुन ली
और बालक स्वस्थ होने लगा। कुछ दिन बाद वे पूर्णतः
स्वस्थ हो गए, परन्तु उन की बड़ी बहन समता गंभीर रूप से बीमार हो गई और थोड़े ही
दिनों बाद वह भगवान को प्यारी हो गई। भगवान ने जैसे अदला-बदली कर दी। माता ने प्रतिज्ञानुसार
देवता को सवा तोले का बालू भेंट कर दिया।
बठाड़ गाँव में एक पाठशाला खुली थी। गांव
के अन्य बालकों के साथ लाल दास जी को भी उस पाठशाला में बिठा दिया गया। लेकिन कुछ समय के बाद ही वह पाठशाला बंद हो गई।
तदोपरान्त उन्हें गोशैणी के स्कूल में प्रवेश दिलाया गया जो वहाँ से लगभग 5 किमी
दूर है। यहाँ से उन्हों ने प्राइमरी परीक्षा पास की। तत्पश्चात शिक्षा के लिए बंजार
के स्कूल में प्रवेश लिया। भाग्यवश हॉस्टल में कमरा भी मिल गया। सन 1941 में यहाँ
से उन्होंने माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण की।
धनाभाव के चलते भी परस राम जी ने अपने
पुत्र को आगे पढ़ने का निश्चय किया क्योंकि अध्यापक ने उन्हें बताया कि लड़का पढ़ाई में अच्छा है। अतः उन्हें कुल्लू भेज
गया। जहां से दो वर्ष बाद उन्होंने मेट्रिक की परीक्षा प्रथम दर्जे में पास की। परस
राम जी के पास उन्हें आगे पढ़ाने की
सामर्थ्य नहीं थी।
एक वर्ष लाल दास जी ने घर में बिताया।
जिस के बाद उन्हें बंजार स्कूल में ग्यारह रुo मासिक वेतन पर ड्रिल-मास्टर की नौकरी मिल गई। यहाँ
उन्होंने लगभग डेढ़ वर्ष का समय बिताया। उन्हीं दिनों पाठशाला में एक सहकारिता
विभाग के निरीक्षक का आना हुआ। निरीक्षक उन से अपने विभाग में उप निरीक्षक पद के
लिए प्रार्थना पत्र लिखवा कर ले गए। थोड़े दिनों बाद उन्हें साक्षात्कार के लिए कुल्लू
स्थित कांगड़ा भवन में बुला लिया गया। कुल्लू जिला भर से लाल दास जी एक ही
प्रत्याशी थे। अतः उन्हें सुगमता से ये नौकरी मिल गई। इस विभाग में वे जीवन पर्यंत
रहे और सन 1982 में निरीक्षक पद से सेवा निवृत्त हुए।
सन 1948 में श्री लाल दास जी का विवाह बाह्य
सराज में तराला गांव के पटवारी अनूप राम जी की पुत्री श्रीमती कुसुम लता के साथ
हुआ। कुछ समयोपरांत मेरा जन्म हुआ। इस के बाद इन की कोई संतान नहीं हुई।
सन 1956 के आस पास, सरकार ने अपने
कर्मचारियों को अपनी शैक्षणिक योग्यता सुधारने के लिए परीक्षाओं में निजी प्रत्याशी
के रूप में बैठने की अनुमति प्रदान की थी। लाल दास जी ने इस का लाभ उठाते हुए सन
1958 में एफo एo (बारहवीं ) की परीक्षा पास कर ली। दो वर्ष के बाद
1960 में बीo एo (स्नातक) भी कर लिया। ये दोनों परीक्षाएँ उन्होंने उस अवधि में पास
कीं जब वे बाह्य सराज में सेवाएं दे रहे थे। वे ये परीक्षाएँ मात्र पास कर सके और
द्वितीय वर्ग भी प्राप्त न कर सके; क्यों कि
माध्यम हिन्दी था जो विद्यालयों में उन्होंने पढ़ी ही नहीं थी (उस समय उर्दू
का चलन अधिक था); अतः लिखने का अभ्यास न होने के कारण प्रश्नों के विस्तृत उत्तर न
दे सके।
श्री लाल दास जी ने लगभग 37 वर्ष तक
सरकारी सेवा की। वर्ष 1954 तक वे पंजाब सहकारी संघ की सेवा में थे। 1954 को उक्त
संघ के सभी कर्मी सरकारी सेवा में हस्तांतरित किए गए। फलतः स्वास्थ्य परीक्षण में दृष्टि की कमजोरी के कारण उन्हें सरकारी सेवा के
अयोग्य घोषित किया गया। उस समय शांगरी के रघुवीर सिंह जी एमo एलo एo थे और प्रताप सिंह कैरों पंजाब के मुख्य मंत्री
थे । रघुवीर सिंह जी ने मुख्य मंत्री से विशेष आदेश निकलवाया जिस के अनुसार उन्हें
विशेष परिस्थिति में सरकारी सेवा में रख लिया गया। वे विभाग के योग्यत्तम निरीक्षकों
में मान्य हुए। अपने कार्यकाल में उन्होंने लगभग बीस सहकारी समितियाँ एवं सभाएँ
संगठित कीं।
मार्च 1992 को अकस्मात उनकी दाहिनी आँख
का पर्दा उखड़ गया। वे वर्षों से मधुमेह से ग्रसित थे। पी जी आई चंडीगढ़ में ऑपरेशन
किया गया लेकिन वह असफल रहा। वहाँ के डॉक्टर की सलाह पर शंकर नेत्रालय चेन्नई में
दुबारा शल्य क्रिया से आँख के परदे को ठीक करने का प्रयास किया गया लेकिन वह भी
सफल न हो सका। उनका दर्द उनकी एक ग़ज़ल में छलक ही गया: -
जयाबतीस1
और साथ उस के बढ़ा हुआ खून का दबाओ।
पड़े पीछे ये रोग ऐसे,
नहीं है जिन से कोई बचाओ ।।
मुसीबत में पड़ गया हूँ जो पर्दा-ए-चश्म-ए-रास्त2
उखड़ा।
बना एक कार-ए-मुश्किल है चश्मे-चप3 का भी रख रखाओ।।
न तो ज़िंदगी के मजे रहे
न मौत ही आ रही है हम को ।
न जाय माँदन4 न पाये रफ़तन5 तुम्हीं अब कोई
राह सुझाओ।।
(1
मधुमेह 2 दाहिनी आँख का पर्दा 3 बाईं आँख 4 रहने
की जगह 5 चलने योग्य पैर)
इन की देव संस्कृति में गहरी आस्था थी। मझटणू परिवार का ज्येष्ट
सदस्य चिपनी गांव के ग्राम-देवता श्री लक्ष्मी-नारायण का कारदार (मुख्य प्रबंधक)
होता है। शायद यहीं से सनातन धर्म के प्रति गहरी आस्था उन्हें विरासत में मिली
थीं। प्रतिदिन प्रातःकल में वे लगभग दो घंटे पूजा अर्चना में बिताते थे। वे अपनी
मधुर ध्वनि में संस्कृत श्लोकों का गाकर उच्चारण करते; बाल्यकाल में उन्हें सुन कर
ही बहुत से श्लोक कंठस्थ हो गए जो मुझे अब तक याद हैं।
सेवा निवृति के बाद का समय उन्होंने साहित्य
साधना में ही बिताया। अंततः 1
जून 2009 को वे नश्वर शरीर को त्याग कर 85 वर्ष की आयु में परम्ब्रह्म
में लीन हो गए।
श्री
लाल दास जी की साहित्य यात्रा
श्री लाल दास जी को संस्कृत भाषा से अत्यंत
प्रेम था; अतः उन्होंने इसे सीखने का अथक प्रयास किया। स्कूल में अधिकतर उर्दू पर
ही जोर दिया जाता था। हिन्दी और अंग्रेजी में वे बाद में किए गए अभ्यास के कारण
पारंगत हो गए। इन तीनों भाषाओं में उनका सुलेख देखते ही बनता है। संस्कृत प्रेम वश
उन्होंने अनेक संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन किया। अष्टध्यायी उस की अनेक टीकाओं के
साथ पढ़ी। लघुकौमुदी, सिद्धांत कौमुदी, अनुवाद चंद्रिका और अनेक संस्कृत स्वयं-शिक्षक
पुस्तकें पढ़ीं। किन्तु आयु के साथ स्मरण शक्ति क्षीण हो जाने के कारण अभीष्ट सफलता
न मिल पाई। आचार्य दिवाकर दत्त द्वारा प्रकाशित दिव्य ज्योति संस्कृत मासिक
पत्रिका को कई वर्षों तक पढ़ते रहे। पंच तंत्र, हितोपदेश आदि भी पढ़े। भगवद्गीता का
तो एक-एक शब्द अर्थ सहित पढ़ा। इस प्रकार महाभारत आदि के सरल श्लोकों के भावार्थ को समझने की योग्यता आ गई। भगवद्गीता
एक ऐसा अनुपम ग्रंथ लगा, जिस में जीवन की किसी भी समस्या का समाधान मिलता है।
सेवा निवृति के बाद श्री लाल दास जी ने गीता का कुल्लवी बोली में
छंद बद्ध अनुवाद किया। इस में विशेषता यह रही कि प्रत्येक श्लोक का पूरा अनुवाद एक
ही वृत में आ गया। उदाहरणार्थ गीता के जग-प्रसिद्ध श्लोकों, “यदा यदा हि धर्मस्य ..........” और “परित्राणाए साधुनाम
.... ..” का अनुवाद इस प्रकार हुआ:-
ज़ेबे ज़ेबे धर्म घटिए पाप बढ़दा लागे। तैबे तैबे प्रकट होय हऊँ सा एजा आगे।। 4 । 7 ।।
साधु
संता तारणे बे पापी रे नाशा बे। जुगा जुगा नां हऊँ सा प्रक्टा धर्मारी रक्षा बे।।
4 । 8 ।।
इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद इन्होंने
महाभारत के कुल्लवी भाषा में छंद बद्ध अनुवाद का बीड़ा उठाया। यह महाभारत का अनुवाद न होकर एक
स्वतंत्र ग्रंथ है। सात वर्षों की अथक तपस्या के उपरांत 1400 पृष्टों की पांडुलिपि
तैयार हुई। इसे प्रकाशित करने के लिए हिमाचल भाषा एवं साहित्य अकादमी को भेजा गया
जिन्होंने इसे छापना सिद्धांत रूप से स्वीकार कर लिया। लेकिन लाल-फीता शाही के
चलते यह संभव ना हो सका।
इस विषय में मुझे तत्कालीन शिक्षा
मंत्री श्री नारायण चंद प्राशर का संवाद याद आता है। महाभारत के प्रकाशन के संबंध
में उन से भेंट की। उन्होंने पांडुलिपि को देखा, प्रभावित भी दिखे। एक-आध छंद को
समझने का प्रयत्न भी किया। फिर बोले, “ठाकुर जी, क्या आप इस का पहाड़ी भाषा में
अनुवाद नहीं करवा सकते?” मैं स्तब्ध था। मैंने खामोशी से पांडुलिपि उठाई और
कार्यालय से बाहर आ गया। यानी मंत्री जी कुल्लवी भाषा को पहाड़ी भाषा नहीं मानते।
बहुत वर्षों बाद प्रोफेसर दयानंद जी गौतम, जो कुल्लू महाविद्यालय से सेवा निवृत
हुए हैं, के सहयोग से इसे प्रकाशित किया जा सका।
लाल दास जी को पुरातन साहित्य के स्वाध्याय का बहुत शौक रहा और
उन्होंने वेदों की चारों सहिंताएँ, लगभग सौ उपनिषद, सांख्य योग, वैशोषक, पूर्व
मीमांसा, उत्तर मीमांसा, मनु यदि बीस समृतियाँ, कौटिल्य अर्थशास्त्र, अमर-कोष, पंच
तंत्र, रामायण, महाभारत, बहुत से पुराण, बाइबल, कुरान, धम्मपद, आदि कतिपय ग्रंथों
का अध्ययन किया। विभिन्न धर्मों के तथ्यों
को जानने के लिए आर्य समाज, यहूदी, ईसाई धर्म, बुद्ध धर्म, जैन धर्म,
इस्लाम, सिक्ख धर्म, कन्फूशियन और ताओ धर्म, राधास्वामी और ब्रह्मकुमारों के
धर्मों का भी अध्ययन किया। सब में सत्य का एक एक अंग ही प्रदर्शित है। केवल सनातन
ही सर्वांगपूर्ण धर्म लगा।
काल्पनिक कथाओं, उपन्यासों/नाटकों को
पढ़ने में इन की कोई रुचि न थी। फिर भी शेक्सपियर की सभी रचनाएं पढ़ीं। कुछ अन्य
प्रसिद्ध लेखकों की भी थोड़ी बहुत रचनाएं
पढ़ीं। मिर्जा ग़ालिब का दीवान भी पढ़ा। जिन
ग़जलों में फारसी शब्दों का अधिक प्रयोग हुआ है पसंद नहीं आईं। अधिकतर शराब और शबाब
का ही बयां हुआ है।
इन की रुचि कविता लेखन में भी थी।
अधिकतर उर्दू में लिखते रहे। सौ ग़ज़लों का एक संग्रह फसिहात-ओ-खुराफात यानि ‘मधुर
वाणी एवं बकवाद’ प्रकाशित हो चुका है। एक अन्य संग्रह ‘मंजूमात-ए-पंकज, जो मूलतः उर्दू में लिखी गया है, को हिन्दी लिपिबद्ध किया जा रहा है।
कुल्लू जनपद की लोकोक्तियों इत्यादि का एक संग्रह ‘पुआम’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ
है। इस के अतिरिक्त इन्होंने लोक गाथाओं, कुल्लू के राजाओं का इतिहास और पंजाब और
हिमाचल की रियासतों का इतिहास भी संग्रहीत किया है जिसे अभी तक धनाभाव के कारण
प्रकाशित नहीं किया जा सका है। सनातन धर्म सर्वस्व नाम से एक और पुस्तक भी लिखी।
वर्ष 1999-2000 में
उन्हें भुट्टी बुनकर सहकारी सोसाइटी द्वारा प्रायोजित ठाकुर वेद राम राष्ट्रीय पुरस्कार सम्मान से
सम्मानित किया गया और साहित्य कला परिषद द्वारा भी उनके कुलवी साहित्य में
प्रशंसनीय सेवाओं के लिए तथा अनुवादित रचना ‘कुल्लू री बोली ना भगवत गीता’ के लिए सम्मानित किया गया।
मैंने क़तरा-ए-आब को पारा किया, ज़र्रा
ज़र्रा-ए-खाक को सितारा किया।
दुनिया को बना दूँ
बहिश्त अगर, यहाँ कोई दिन और क़याम
मिले।।
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बेहद ही मार्मिक विवरण
जवाब देंहटाएंनमस्कार महोदय।
जवाब देंहटाएंसाहित्यकार स्वर्गीय श्री लाल दास जी 'पंकज' को कोटि कोटि नमन।
बेहद प्रसन्नता का भाव पैदा होता है, जिसकी अभिव्यंजना नहीं की जा सकती जब मालूम पड़ता है कि इस तरह के व्यक्तित्व हमारी घाटी में जन्में हैं।
जवाब देंहटाएंऐसे महान व्यक्तित्व को कोटि कोटि नमन।