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दुनियाँ-दारी

      दुनियाँ-दारी दुःख-तप्त जनों की आह....! सुनाता हूँ, तो हंस देते हो तुम ---                         “प्रिय, ये दुनियाँ है...!”                         ..... महान हो तुम                         नित्यता दुःख की                         मान गए हो तुम | अश्रु-रंजित घाव मन के दिखता हूँ, तो नि:श्वास भरते हो तुम---                         “प्रिय, संवेदना है मुझे....!”   ...

त्रिविधा

    त्रिविधा चेहरे की अगनित रेखाओं से झांकता गगन के मेघों को सोचता है – बरसें तो क्या ! न बरसें तो भी क्या !! आखिर नष्ट तो होगी ही एक फसल| चैत न बरसे होगी नष्ट रबी | सावन सूखा यदि या बरसा अधिक तो नहीं होगी फसल ख़रीफ की | ऋतू चक्र चला यदि समय - बद्ध तो मारी जाएगी फसल ‘ रिलीफ ’ की ||

विकास कि पहचान

विकास कि पहचान गाँवो में झलकती है देश के उत्थान की पहचान ! नहीं दीखती अब अल्हड़ बालाएं इठलाती जाती पनघट की ओर | नहीं दीखती अब बल खाती गागर बोझ तले ओस भीगे पल्लू को समेटती | अब ..... दीख पड़ती है वह समय - सारणी से मुक्त आँगन के नल के सामने लिए मुख पर प्रतीक्षा की थकान क्या उत्थान ! क्या इस की पहचान !! शहर के उस मोहल्ले में नहीं सुनती अब वो बचपन की किलकारियां| क्योंकि बचपन सम्मोहित है शिन्चेन और डोरेमोन की वक्र आकृतियों पर | मोबाईल व टीवी के एल्क्ट्रोनिक शोर में, नुक्कड़ के ठहाके मौन हो गए| मशीनों से संचारित विश्व में मानव सम्बन्ध गौन हो गए | फेसबुक मित्रों के भीड़ में हमप्याला अब निवाला खो गए | ये विकास-गाथा है या ह्रास की दास्तान | क्या उत्थान , क्या उस की पहचान ||

व्यथित मन ...... जो हँसना चाहता है

व्यथित मन ...... जो हँसना चाहता है मन में आंसू हैं नयनों में सुमन नि:श्वासों  की परतें बिछा कर दबाना चाहता हूँ एक ज्वालामुखी जो फटना चाहता है | जल जाए न कहीं कोई उपवन दृग-नीर की बूँदें बिखेर कर बुझाना चाहता हूँ भयंकर दावानल जो जलना चाहता है | पीड़ा से संवरे मोती ही जहाँ जीवन-धन विप्लव-वीणा की झंकार से मिटाना चाहता हूँ एक शहर जो बसना चाहता हूँ | विस्मृत न करे वेदना को मेरा मन हिय-पीर के गीत सुना कर रुलाना चाहता हूँ व्यथित मन को जो हँसना चाहता है ||       ------0-----

जीवन ज्ञान

जीवन ज्ञान                                            (ओंकार ठाकुर ) व्यथित, विक्षिप्त, अविराम चलते चलते रुक जाता हूँ थक कर एक तरु की छाया में | पीछे देखता हूँ  एक सूना सा पथ अनगिनत क़दमों से रुन्धा पदचिन्ह रहित ऊषा-सांझ को मिलाता निश्चल है जैसे अभिषप्त विषधर | ऊपर देखता हूँ एक तुंड-मुंड तरु जिस के पत्ते उड़ चुके हैं पतझड़ की पवन मैं | वह बोला . . . असंख्य वसन्त देखे हैं मैंने किन्तु कुछ वर्षों से रुष्ट है निर्मोही निष्ठुर | अकस्मात् . . . . तरु-शिखर पर बैठा भयवाह गिद्ध पंख फैलता है बोध कराने अपनी उपस्थिति का | उस के रक्तिम नेत्रों मैं एक आवाहन “पन्थी, बसेरा यहीं कर लो” वशीकृत सी शिथिलता में   गिरता हूँ आत्म-बोध खो कर | यह स्वप्न है या यथार्थ ? तभी सुगन्धित समीर का झोंका झिझोड़ता है मुझे निकट कहीं उपवन है एक चेतना स्फूर्त करती है मुझे और मैं विगत पथ, गिद्ध व तरु सभी को भूल हुआ अग्रसर अपन...

राही, धिक्कारो तब अपने मन को

    राही , धिक्कारो तब अपने मन को                                                               (ओंकार ठाकुर) सुन्दर भविष्य की मीठी चाह में, लक्ष्य साधना की लम्बी राह में,                     स्मरण कर अपने बीते जीवन को,                     राही , धिक्कारो मत अपने मन को | स्वार्थ नहीं तरु को तो फलना है, साथी नहीं तुझ को तो चलना है,                     मन स्मरण करे यदि स्वजन को,                     राही , धिक्कारो मत अपने मन को | क्...

क्रांति का आवाहन

क्रांति का आवाहन                                                       (ओंकार ठाकुर)                                          जाग ओ श्रमिक मेरे देश के तू जाग अब | दमन की चक्की में तू पिसता रहेगा कब तक ? कलों की धुरी में  तू  घिसता  रहेगा कब तक ? लहू  तेरा  मिट्टी  में   रिसता  रहेगा कब तक ?                     अस्थिर हवाओं में झूलता रहेगा कब तक ?                     जाग ओ श्रमिक मेरे देश के तू जाग अब | केवल श्रम नहीं अराध्य तेरा और भी है | केवल अन्न नहीं  सा...

अज्ञान-तिमिर

अज्ञान-तिमिर                                                          (ओंकार ठाकुर ) संग लहरों के लहराती हुई बिना पाल की चंचल नाव अविरल प्रयास के बाद भी तोड़ सकी न तम का घेराव |                                         दिशा भ्रम  के  वातावरण में                     लक्ष्य स्वयं है  विराट छलावा                     नाव को निरन्तर धकेल रही है                     लहरें देकर एक सुंदर छलावा | ...

जीवन आशा

जीवन आशा                                      (ओंकार ठाकुर )                      जीवन बन गया हलाहल,                     मैं पीना चाहता हूँ |                     मेरी दीवानगी तो देखिये,                     मैं  जीना चाहता हूँ| जो चाहा  सो पा न सका, अनचाहा अपने पास मिला, शिखरों की  अभिलाषा में, अपूर्व पतन व ह्रास मिला, आँखों  से दो आंसू टपके, संसार से  उपहास मिला |                                        ...