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दुनियाँ-दारी

      दुनियाँ-दारी दुःख-तप्त जनों की आह....! सुनाता हूँ, तो हंस देते हो तुम ---                         “प्रिय, ये दुनियाँ है...!”                         ..... महान हो तुम                         नित्यता दुःख की                         मान गए हो तुम | अश्रु-रंजित घाव मन के दिखता हूँ, तो नि:श्वास भरते हो तुम---                         “प्रिय, संवेदना है मुझे....!”   ...

त्रिविधा

    त्रिविधा चेहरे की अगनित रेखाओं से झांकता गगन के मेघों को सोचता है – बरसें तो क्या ! न बरसें तो भी क्या !! आखिर नष्ट तो होगी ही एक फसल| चैत न बरसे होगी नष्ट रबी | सावन सूखा यदि या बरसा अधिक तो नहीं होगी फसल ख़रीफ की | ऋतू चक्र चला यदि समय - बद्ध तो मारी जाएगी फसल ‘ रिलीफ ’ की ||

नीला आकाश

नीला आकाश (ओंकार ठाकुर ) यह नीला आकाश ! शायद इस ने विष पिया है अपने प्रिय से बिछुड़ कर | निशा आती है खो जाता है प्रिय के रत्नित आँचल में | दिनकर का उदय सन्देश है वियोग का और आकाश ! विछिन्न, रक्त रहित नीला पड़ जाता है | सुख और दुःख समय की डोर से बंधे एक ही धुरी पर घूमते हैं सांध्यके पदार्पण से आशा की रक्तिम आभा छा जाती है आकाश के अधरों पर कितनी सुखद है प्रिय मिलन की कल्पना ||